Wednesday, July 10, 2013

विश्व जनसंख्या दिवस पर विशेष : जनसंख्या नियत्रण पर फेल है लाल फीताशाही

विशेष रिपोर्ट : निहाल सिंह
नई दिल्ली, 10 जुलाई  मनुष्य को छोड़कर दूसरे किसी भी प्रजाति के जीवों की आबादी को नियंत्रित करने की जरुरत नहीं होती है। उनकी आबादी को प्रकृति खूद नियंत्रित रखती है,लेकिन मानव जैसे-जैसे विकास की सीढ़िया फर्लांगते जा रहा है और असाध्य बीमारियों पर काबू पाते जा रहा है वैसे-वैसे आबादी भी बढ़ते जा रही है। एक दौर था जब किसी महामारी का प्रकोप होता था तो गांव-गांव की आबादी लुप्त हो जाती थी। एक तरह से मानव की तरक्की ही प्रकृति के संतुलन पर भारी पड़ रहा है। चीन ने अपने यहां सख्त कानून बनाकर काफी हद तक अपनी आबादी को काबू कर रखा है,लेकिन भारत के संदर्भ में जब बात विश्व जनसंख्या की आती है तो दिन दोगुना रात चौगुनी की कहावत भी कम पड़ जाती है। आज विश्व जनसंख्या का विस्फोट इस तरह दुनिया पर भारी पड़ रहा है,जिसकी उम्मीद भी नहीं की जा सकती।
प्रति मिनट 25 बच्चे होते हैं पैदा
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान(एम्स) की वरिष्ठ गायनिकोलॉजिस्ट डॉ अलका कृपलानी कहती हैं कि आपको जानकर यह आश्चर्य होगा कि अकेले भारत में प्रति मिनट 25 बच्चे पैदा होते हैं। यह आंकड़ा वह है जो बच्चे अस्पतालों में जन्म लेते हैं। अभी इसमें गांवों और कस्बों के घरों में पैदा होने वाले बच्चों की संख्या नहीं जुड़ी है। जबकि भारत मूल रुप से गांवों और कस्बों का ही देश है और वहां की महिलाओ की डिलीवरी घरों में ही होती है। अब सोच कर देखिए जब अकेले भारत में इतने बच्चे एक मिनट में पैदा होते होंगे तो विश्व में कितने बच्चे प्रति मिनट धरती पर आते होंगे। हम जनसंख्या तो बढ़ा रहे हैं,लेकिन संसाधनों को इस तरह खत्म कर रहे हैं कि हमारी आने वाली पीढ़ी के लिए संसाधनों के खत्म होने का डर लगा हुआ है।
सरकारी कार्यक्रम फेल
हार्ट केयर फाउंडेशन के अध्यक्ष डॉ केके अग्रवाल कहते हैं कि जागरु कता के नाम पर भारत में कई कार्यक्रम चलाए गए, हम दो हमारे दो का नारालगाया गया लेकिन लोग हम दो हमारे दोका बोर्ड तो दीवार पर लगा देख लेते हैं और घर जाकर उसे बिलकुल भूल जाते हैं और तीसरे की तैयारी में जुट जाते हैं। भारत में गरीबी, शिक्षा की कमी और बेरोजगारी ऐसे अहम कारक हैं जिनकी वजह से जनसंख्या का यह विस्फोट प्रतिदिन होता जा रहा है। कुछ खास समुदाय के लोग अपनी धार्मिक आस्था के चलते परिवार नियोजन से दूर रहना  चाहते हैं। ऐसे में देश में जिस गति से आबादी बढ़ रही है उस हिसाब से देश के संसाधनों पर सन 2026 तक न केवल 40 करोड़ और लोगों का दबाव बढ़ जाएगा, बल्कि  हम जनसंख्या के मामले में चीन को भी पीछे छोड़ देंगे।
महिलाएं स्वैच्छिक परिवार नियोजन से दूर
गंगाराम अस्पताल की वरिष्ठ गायनिकोलॉजिस्ट डॉ आभा मजूमदार कहती हैं कि जागरुकता के बावजूद महिलाएं परिवार नियोजन के विकल्पों से दूर रह रही हैं। किसी की धार्मिक आस्था सामने आ रही है तो किसी की सामाजिक ताने। भारत समेत सभी विकासशील देशों में मां बनने की उम्र की 21 करोड़ 50 लाख महिलाएं स्वैच्छिक परिवार नियोजन तक पहुंच नहीं पाती हैं। लाखों किशोरों और नवयुवितयों को एचआइवी से बचाव की जानकारी बहुत कम है। सात अरब की आबादी में 1.8 अरब लोग ऐसे हैं, जिनकी उम्र 10 से 24 साल के बीच है। धरती पर इंसान की उत्पत्ति के कई हजारों साल बाद जनसंख्या ने एक अरब का आंकड़ा छुआ। दूसरे अरब का आंकड़ा छूने में उसे 120 साल से ज्यादा का इंतजार करना पड़ा। बीते पचास सालों में इंसानों की तादाद में दोगुना से ज्यादा की वृद्धि हुई। 1959 में तीन अरब थे तो 1984 में चार अरब हो गए। 1997 में पांच तो 1999 में छह अरब हो गए। सिलसिला जारी है। पृथ्वी की कुल आबादी इस समय 7 अरब से भी ज्यादा है। सन 2030 और 2040 के बीच विश्व की जनसंख्या के नौ अरब का आंकड़ा पार कर जाने की संभावना है। अगर जल्द ही वैश्विक तौर पर जनसंख्या नियंत्रण के अहम कदम ना उठाए गए तो इस बात का डर है कि जनसंख्या का विस्फोट संसाधनों को निगल जाए और हालात विश्व युद्ध के बन जाएं।


Saturday, June 8, 2013

फ्रैक्चर को न करें नजरअंदाज,बन सकता है जिंदगी भर का दर्द

निहाल सिंह ।
नई दिल्ली। युवा कामकाजी प्रोफेशनल 25 वर्षीय प्रिया कुकरेजा ने इस उम्र में अप्रत्याशित स्वास्थ्य समस्या के बारे में कभी नहीं सोचा था जब तक कि वह दुर्घटनावश बर्फ पर फिसल नहीं गई और उसकी कोहनी टूट नहीं गई। प्रिया ने इसे हल्के में लिया। शुरु में दर्द नहीं हुआ,लेकिन बाद में टूटी हड्डी की जगह सूजन आने से परेशानी बढ़ गई। जबतक वह आर्थोपेडिक डॉक्टर के पास गई तबतक नुकसान हो चुका था। उसके कोहनी में हड्डी गलत जगह से जुड़ने की वजह से उसके हाथ टेढ़े हो गए।
जब इस युवा महिला की जांच की गई तो एक्स-रे में हड्डी के कई टुकड़े के साथ जटिल फ्रैक्चर पाया गया। उसकी दाहिनी कोहनी में दर्द, सूजन भी थी और उसे हिलाना- डुलाना मुश्किल था। उसकी कोहनी का एक जटिल अपरेशन किया गया और हड्डी के टुकड़ों को विशेष  प्लेट और स्क्रू से फिक्स किया गया। इस प्रक्रिया के तीन महीने बाद, वह अब सामान्य रूप से अपने हाथ को हिलाने - डुलाने में सक्षम है। यदि समय रहते इलाज किया जाता तो प्रिया को इतना परेशान होने की जरुरत नहीं थी।
फ्रैक्चर को न लें हल्के में
फोर्टिस अस्पताल के आर्थोपेडिक विभाग के अध्यक्ष डॉ जीके अग्रवाल कहते हैं कि शरीर के किसी भी हिस्से में फ्रैक्चर होना ठीक नहीं है। यदि फ्रैक्चर हो भी गया है तो इसके सही इलाज की जरुरत है। यदि इसे नजरअंदाज किया जाएगा तो यह जीवन भर का दर्द बन सकता है। डॉ अग्रवाल के मुताबिक कोहनी ऊपरी अंग के सबसे महत्वपूर्ण भागों में से एक है और इसके फ्रैक्चर का सही ढंग से इलाज नहीं कराने पर यह काफी परेशानी पैदा कर सकता है। कोहनी में फ्रैक्चर के कारण उसे हिलाने-डुलाने में परेशानी और जकड़न जैसी जटिलताएं हो सकती हैं।
फ्रैक्चर का क्या है इलाज?
सफदरजंग स्पोर्ट्स इंज्यूरी सेंटर के निदेशक डॉ दीपक चौधरी कहते हैं कि यदि हड्डियों को ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचा हो तो जल्द मूवमेंट पर बल दिया जाता है, या स्लिंग, कास्ट या स्प्लिंट जैसे सामान्य उपचार किए जाते हैं। विस्थापित या अस्थिर फ्रैक्चर होने पर क्षतिग्रस्त हड्डियों को फिर से संगठित करने और फिर निर्माण करने के लिए सर्जरी की आवश्यकता होती है।
हड्डियों को सही स्थिति में लाने के लिए किसी विशेषज्ञ के द्वारा सर्जरी कराना महत्वपूर्ण है। जोड़ों की हड्डियों को सही तरह से फिट किया जाना जरूरी है ताकि दुर्घटना के बाद हड्डियां जिग-सा पजल की तरह फिट नहीं हों, क्योंकि ऐसा होने की संभावना होती है। इस प्रक्रिया के बाद रोगी के सामान्य कामकाज करने की संभावना बढ़ जाती है।
डॉ चौधरी कहते हैं कि अस्टियोपोरोसिस से ग्रस्त महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग लोग खराब किस्म के फ्रैक्चर के प्रति विशेष रूप से संवदेनशील होते हैं,क्योंकि उनकी हड्डियां कमजोर होती हैं और उनके टूटने की भी आशंका अधिक होती है। हड्डी का फ्रैक्चर हमेशा इतना खतरनाक नहीं होता हैं, लेकिन स्थिति के खराब होने नहीं देने के लिए बहुत सावधान रहना चाहिए और उचित चिकित्सकीय सलाह और देखभाल लेना चाहिए ताकि स्थिति और बिगड़े नहीं। चोट लगने के बाद सतर्क रहना चाहिए और इलाज करने में विलंब नहीं करना चाहिए। इससे मरीज को दोबारा शीघ्र चलने-फिरने लायक बनने में आसानी होती है।

Thursday, May 30, 2013

एन्टी तंबाकू दिवस पर विशेष, दस में से पांच वयस्क घर पर अपरोक्ष धूम्रपान के शिकार


नई दिल्ली। निहाल सिंह ।। जब 65 वर्षीय सीमा को अपने फेफड़े के कैंसर के बारे में पता चला तो उनकी पूरी दुनिया बिखर गई। उनके लिए यह एक झटके के रूप में सामने आया खासकर तब जब कि वे धूम्रपान नहीं करती थी और एक स्वस्थ्य जीवन शैली का पालन कर रही थी। वह करीब 40 सालों से अपने पति के धूम्रपान की वजह से परोक्ष धूम्रपान का शिकार हो रही थी।
बिना किसी गलती के यह महिला दर्दनाक किमियोथेरेपी और रेडिएशन थेरेपी से गुजर रही हैं, लेकिन इस बिमारी के अंतिम चरण पर यह इलाज भी कोई बहुत ज्यादा प्रभावकारी नहीं होता है। आत्मग्लानि से ग्रस्त उनके पति ने धूम्रपान छोड़ दिया, लेकिन यह एहसास होने में बहुत देर लग गई। अगर उन्हें समय से यह एहसास हो जाता तो वे अपनी पत्नी को इस खतरनाक बीमारी से बचा लेते।
राजीव गांधी कैंसर इंस्टीट्यूट के वरिष्ट ओंकोलॉजिस्ट डॉ उल्लास बत्रा कहते हैं कि यह कोई अकेला उदाहरण नहीं है, हम अक्सर ऐसे मामले देखते हैं, जो अक्सर अपरोक्ष धूम्रपान का परिणाम होते हैं। तंबाकू रहित दिवस मनाते हुए हमें न सिर्फ युवाओं को धुएं के खतरे से बचाना ही आवश्यक है, बल्कि इसे अगली पीढी में जाने से रोकना है।
क्या है अपरोक्ष धूम्रपान?
अपरोक्ष धूम्रपान तब होता है जब, किसी धूम्रपान कर रहे व्यक्ति के जलते उत्पाद या फिर छोडे गए धुएं को कोई धूम्रपान न करने वाला व्यक्ति अपने सांसों के जरिए अंदर लेता है। यह पाया गया है कि एक जलती हुई सिगरेट से निकलने वाले धुएं का 66 फीसदी धुम्रपान करने वाला स्वयं नहीं लेता, बल्कि वह पूरे वातावरण में फैल कर उसे धूम्रपान करने जितना ही खतरनाक बना देता है। अपरोक्ष धूम्रपान घातक होता है क्योंकि इसमें धूम्रपान करने वाले व्यक्ति द्वारा लिए गए निकोटीन तथा टार की दुगनी मात्रा होती है, इसमें कार्बन मोनोऑक्साइड की मात्रा पांच गुना ज्यादा होती है, इसमें ज्यादा स्तर की अमोनिया एवं कैडमियम होती है, इसमें हाइड्रोजन साइनाइड, एक जहरीली गैस, होती है, इसमें नाईट्रोजन डाइऑक्साइड है जो बहुत नुकसानदायक है तथा नियमित रूप से अपरोक्ष धूम्रपान का शिकार होने पर फेफडे के रोगों की संभावना 25 फिसदी बढ जाती है तथा हृदय रोगों की संभावना 10 फिसदी बढ जाती है।
तंबाकू से छह लाख लोगों की जाती है जान
फोर्टिस अस्पताल के वरिष्ठ चिकित्सक डॉ. समीर पारीख दुनिया भर में तंबाकू की लत सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए सबसे बडा खतरा बन चुकी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार यह हर साल करीब छह लाख लोगों की जान लेती है जिसमें करीब पांच लाख वे होते हैं जो सीधे तंबाकू का सेवन करते हैं और करीब छह लाख ऐसे लोग होते हैं जो धूम्रपान नहीं करते हैं और अपरोक्ष धूम्रपान का शिकार होते हैं। डॉ पारीख कहते हैं कि इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि तंबाकू का प्रभाव अलग-अलग लोगों पर अलग-अलग तरीके से पडता है। जो लोग तंबाकू के प्रति ज्यादा संवेदनशील होते हैं,उन्हें प्रत्यक्ष या परोक्ष धूम्रपान से जल्दी कैंसर हो सकता है और जिन लोगों की प्रतिरोधक क्षमता थोडी ज्यादा होती है वे इसके प्रत्यक्ष परिणामों से थोडे लंबे समय के लिए बच सकते हैं। वास्तविक तथ्यों के अनुसार बडे लोगों की तुलना में युवा ज्यादा धूम्रपान करते हैं और जितनी जल्दी वे शुरु करते हैं, उसके दुष्भाव उतनी जल्दी शुरु होते हैं। डॉ पारीख के मुताबिक भारत में 35 प्रतिशत लोग तंबाकू सेवन करते हैं। इसमें 46 प्रतिशत ग्रामीण महिलाएं भी तंबाकू सेवन की लत से ग्रस्त हैं।
स्पर्म काउंट के कम होने का कारण है तंबाकू
सर गंगाराम अस्पताल की स्त्रीरोग विशेषज्ञ डॉ आभा मजूमदार कहती हैं कि पुरुषों में संतान पैदा न कर पाना कई कारकों पर निर्भर करता है, उनमें से सबसे बडा कारक तंबाकू है। महिलाओं में भी तंबाकू का सेवन बहुत अधिक बढ गया है, जिसकी वजह से लगातार बांझपन के मामले बढ रहे हैं। पुरुषों के अधिक तंबाकू सेवन से उनके स्पर्म की गुणवत्ता में भारी कमी आती है, जिसकी वजह से उन्हें संतान होने में दिक्कत होती है।
तंबाकू त्वचा पर डालता है बुरा प्रभाव
मैक्स अस्पताल के डर्मिटोलॉजिस्ट डॉ गौरांग कृष्णा ने बताया कि तंबाकू त्वचा पर बहुत बुरा असर डालती है। तंबाकू की वजह से त्वचा पर कम उम्र में झुर्रियां पडने लगती हैं। उन्होंने बताया कि तंबाकू त्वचा पर दो तरह से प्रभाव डालती है। पहली तो हवा में जाकर त्वचा की ऊपरी भाग को नुकसान पहुंचाती है। वहीं दूसरी तरफ  तंबाकू शरीर के अंदर जाकर त्वचा में खून का बहाव कम कर देती है, जिसकी वजह से त्वचा को जरूरी पोषण और ऑक्सीजन आदि नहीं मिल पाते हैं।
हड्डियों का कमजोर करता है तंबाकू
सफदरजंग स्पोर्ट्स इंज्यूरी सेंटर के अध्यक्ष डॉ दीपक चौधरी कहते हैं कि धूम्रपान की आदत का असर जोडों पर भी पडता है। तंबाकू में पाया जाने वाला निकोटीन शरीर में जहरीला प्रभाव छोडता है जिससे मांसपेशियों, जोडों और हड्डियों पर भी असर डालता है और हीलिंग की प्रक्रिया को धीमा कर देता है। निकोटीन हड्डियों का फ्रैक्चर भरने की प्रक्रियाएं एस्टोजन के प्रभाव को कम करता है और यह विटामिन सी और ई से मिलने वाले एंटी ऑक्सिडेंट तत्वों को निष्प्रभावी कर देता है। यही वजह है कि धूम्रपान करने वालों को कूल्हे के फ्रैक्चर का खतरा ज्यादा रहता है।



Monday, May 27, 2013

आईवीएफ तकनीक से अधिक उम्र में गर्भधारण पर लगे प्रतिबंध

आईवीएफ तकनीक से अधिक उम्र में गर्भधारण पर लगे प्रतिबंध
नई दिल्ली,  । उत्तर प्रदेश की 68 वर्षीय ग्रामीण महिला, एक साथ तीन बच्चों को जन्म देने की वजह से सुर्खियों में बनी हुई है। ऐसे में जहां एक तरफ आईवीएफ के द्वारा अधिक उम्र के बावजूद मां बन पाना एक वरदान साबित हुआ है वहीं इस उम्र में गर्भधारण करना कानूनी दिशा निर्देशों और होने वाले बच्चे के लिए कितना उचित है यह एक चिंता का विषय बना हुआ है। फार्टिस फेम अस्पताल की स्त्री रोग एवं बांझपन विशेषज्ञ डॉ़ ऋषिकेश पाई ने हिन्दुस्थान समाचार से बातचीत के दौरान कहते हैं कि इस मामले में चिंताजनक विषय यह नहीं है कि अधिक आयु में गर्भ धारण कर पाने की संभावना कितनी अधिक है,बल्कि सोचने वाली बात यह है कि नैतिक रूप से यह कितना सही है। यह एक बहुत ही दुखद बात है कि किस प्रकार तकनीक के वरदान का दुरूपयोग करके इसको अभिशाप में बदला जा रहा है। इसलिए जरुरी है कि चिकित्सक और दंपति दोनों ही विज्ञान के द्वारा मिले विकल्पों का प्रयोग सहायता प्रजनन तकनीक के दिशा- निर्देशों के अनुसार कानूनी दायरे में रहते हुए ही करें,ताकि विज्ञान की यह देन वरदान की जगह अभिशाप न बन जाए।  सर गंगाराम अस्पताल की आईवीएफ विशेषज्ञ डॉ आभा मजूमदार कहती हैं कि इस तकनीक के इस्तेमाल से कोई भी महिला किसी भी उम्र में अन्य महिला के अण्डदान के द्वारा गर्भ धारण कर सकती है। ज्यादातर देखा गया है कि 50 वर्ष की उम्र के बाद गर्भधारण करने वाली महिलाएं, होने वाले बच्चे पर पड़ने वाले दूरगामी परिणामों को ध्यान में रख कर यह निर्णय नहीं लेती। शारीरिक रूप से महिलाएं सिर्फ निश्चित उम्र तक ही गर्भवती हो सकती है। क्योंकि माता-पिता बनने का दायित्व सिर्फ बच्चे को जन्म देने तक ही पूरा नहीं होता,उन्हें होने वाले बच्चे के लिए सुखमय बचपन और स्वस्थ जीवन को भी सुनिश्चित करना होता है। जब माता पिता, खुद ही स्वस्थ और मजबूत नहीं होंगे उनसे यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वे होने वाली संतान की सभी मूलभूत जरूरतों को पूरा कर एक अच्छा भविष्य दे पाएंगे।
50 वर्ष से ऊपर की महिलाओं के लिए आईवीएफ हो प्रतिबंधित
मौजूदा समय में 1000 से अधिक सदस्यों वाली भारतीय सहायता जन समूह के वरिष्ठ उपाध्यक्ष डॉ़ ऋशिकेश पाई का कहना है कि 50 वर्ष से अधिक आयु की महिलाओं के लिए आईवीएफ पूरी तरह से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए, क्योंकि चिकित्सा विज्ञान के मुताबिक यह साबित हो चुका है कि अधिक उम्र में गर्भावस्था से मां और बच्चे दोनों को काफी खतरा होता है। बड़ी उम्र में गर्भधारण करने वाली महिलाओं में आमतौर पर मधुमेह, उच्च रक्तचाप होने का खतरा बढ़ जाता है़,जिसका सीधा असर गर्भ में पल रहे बच्चे के विकास पर पड़ता है उन बच्चों में ज्यादातर आनुवंशिक दोष या मृत्यु होने की संभावना रहती है।
डा़ पाई कहते हैं कि जब कोई इस बात को लेकर सुनिश्चित ही नहीं है कि वह जिस नए जीवन को दुनिया में ला रहे हैं उसे गुणवत्ता पूर्ण जिंदगी दे भी सकते हैं या नहीं, ऐसे दंपतियों के लिए अधिक आयु में आईवीएफ द्वारा गर्भधारण पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। डॉ पाई ने सरकार से इसपर पूरी तरह प्रतिबंध लगाने की मांग की है। उत्तर प्रदेश की इस महिला भतेरी के एक साथ तीन बच्चों के जन्म से एक और सबसे बड़ा खतरा सामने आया है। जैसा कि जन्म लेने वाले तीनों बच्चे मात्र 1.5 किलोग्राम के ही हैं। इतनी कमजोर स्थिति में इन बच्चों में संक्रमण एवं कई तरह की समस्याएं पैदा हो सकती हैं।
प्रजनन तकनीक नियंत्रित करने का कोई कानून नहीं
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के उपाध्यक्ष डॉ के के अग्रवाल कहते हैं कि हालांकि सहायक प्र्रजनन तकनीक को नियंत्रित करने के लिए भारतीय कानून में कोई प्रावधान नहीं है,लेकिन इस तकनीक को भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद और नेशनल अकेडमी ऑफ मेडिकल साइंस के आधार क्षेत्र में रखा गया है। भारतीय असिस्टेड रिप्रोडक्शन व आईवीएफ भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद द्वारा केवल दिशा निर्देश निर्धारित किए गए हैं। इसके लिए अभी तक कोई प्रभावी कानून नहीं है। डॉ अग्रवाल कहते हैं कि सहायक जनन तकनीक के लिए प्रस्तावित दिशा निर्देशों के अनुसार इस प्रक्रिया में गर्भधारण करने वाली महिला के गर्भ में केवल 2 अंडाणुओं को ही विस्थापित किया जा सकता है या फिर किसी जटिल परिस्थिति में अधिक से अधिक 3 अंडाणु,इससे अधिक करना कानूनी दिशा-निर्देशों के विपरीत एक अपराध है। ऐसा इसलिए क्योंकि जितने अधिक अंडाणु गर्भ में डाले जाएंगे उतने ही अधिक भ्रूण बनने की संभावना बढ़ जाती है। यदि एक से अधिक अंडाणु विस्थापित किए जाएंगे तो मल्टीपल प्रेगनेंसी की संभावना भी उतनी ही अधिक हो जाती है। इसलिए यह जरूरी है कि जब तक इस संदर्भ में कोई सख्त कानून भाव में नहीं आता है तब तक सभी आईवीएफ चिकित्सक इस तकनीक को प्रस्तावित दिश- निर्देशों के अनुसार ही प्रयोग करें और उत्तर प्रदेश की 68 वर्षीय महिला को तीन-तीन बच्चों के जन्म का जश्न मनाने का मौका देकर आने वाली मासूम जिंदगी को खतरे में न डालें।

चिकनपॉक्स से बचाव के लिए ‘एंटी रैट्रोवायरल थैरेपी’ ज़रूरी
नई दिल्ली। गर्मी बढने के साथ ही मार्च के महीने में होने वाले चिकन पॉक्स(चिकनगुनिया)की जटिलताओं को देखते हुए विशेषज्ञों ने बूढों एवं बच्चों को एंटी रैट्रो वॉरल थेरेपी लेने की सलाह दी है। इस संबंध में आगाह करते हुए  डॉ. के के अग्रवाल ने बताया कि प्राथमिक संक्रमण ‘वैरीसेला वायरस’ से होता है। जिससे जटिल समस्याएं हो सकती है, जिनमें टिश्यू इनफैक्शन, न्यूमोनिया, हेपेटाइटिस, एन्सीफैलाइटिस जैसी समस्याएं शामिल हैं , जो गर्भवती महिलाओं और वयस्कों में होती हैं। इसकी रोकथाम के लिए सभी वयस्कों और वृद्वों व बच्चों को बुखार की दवाईयां लेनी चाहिए। इससे बचने के तरीकों एवं उपचार के विषय में जानकारी देते हुए डा. अग्रवाल ने कहा कि सभी को नाखून कायदे से काटने चाहिए ताकि किसी समस्या या फिर कीटाणुओं से होने वाले संक्रमण से बचा जा सके । उन्होंने बताया कि खासकर बच्चों में बुखार के उपचार के लिए पैरासीटामॉल दी जानी चाहिए क्योंकि एस्प्रिन से रेम्ये सिंडोम का खतरा हो सकता है। सभी अधिक उम्र के बच्चो और वयस्कों को असाईलोविर दी जानी चाहिए। साथ ही उक्त थैरेपी उन लोगों को भी दी जानी चाहिए जो घर में रहते हों ओर वे क्रोनिक क्यूटेनियस या कार्डियोपल्मोनरी डिसआर्डर का शिकार हों । डा. अग्रवाल ने कहा कि असाइक्लोविर, वैरिसेला के लिए तभी सुरक्षित और प्रभावी है जब इसे चकत्ते निकलने के 24 घंटे के अंदर दिया जाए। इसके लिए डा. अग्रवाल ने टीकाकरण पर भी विशेष घ्यान देने की बात कही। उन्होंने कहा कि बिना इम्युनिटी प्रमाण के 12 से 15  महीने के सभी बच्चों को वैरिसेला टीकाकरण करवाना चाहिए। वैरिसेला वैक्सीन की दूसरी डोज नियमित तौर पर चार से छह सालों तक दी जानी चाहिए।। इस बिमारी से बचने के लिए सभी आशंकित बच्चो का उनके 13 वें जन्मदिन तक पूर्ण टीकाकरण करवाना अनिवार्य है।

सिर दर्द बन सकता है ब्रेन ट्‌यूमर
नई दिल्ली,। अक्सर ही मस्तिष्क के रोगों की शुरुआत सिर में असाधारण दर्द के साथ होती है। सुबह सोकर उठने के बाद यह सिरदर्द असहनीय रहता है और दिन गुजरने के साथ यह धीरे-धीरे कम होता है। पटपडगंज स्थित मैक्स हॉस्पिटल के न्यूरो सर्जन डॉ. अमिताभ गुप्ता का कहना है कि यही सिर दर्द ब्रेन ट्‌यूमर जैसी खतरनाक बिमारी का आगाज भी हो सकता है। जिसकी पहचान जितनी पहले हो जाए, इलाज उतना ही आसान हो जाता है।
डॉ. अमिताभ का कहना है कि ब्रेन ट्‌यूमर के लक्षण सीधे उससे संबंधित होते हैं जहां दिमाग के अंदर ट्‌यूमर होता है। उदाहरण के लिए मस्तिष्क के पीछे ट्‌यूमर के कारण दृष्टि संबंधी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। प्राय: ब्रेन ट्‌यूमर का निदान करना थोडा मुश्किल होता है क्योंकि इसमें पाए जाने वाले लक्षण किसी अन्य समस्या के भी संकेत हो सकते हैं। बोलते समय अटकना, दवाइयों, नशीले  पदार्थों या शराब का सेवन करने के कारण भी हो सकता है। जब यह लक्षण बहुत तीव्रता के साथ उत्पन्न होने लगते हैं तो यह ब्रेन ट्‌यूमर का कारण हो सकते हैं। डॉ. अमिताभ गुप्ता के अनुसार इंडोस्कोपिक सर्जरी में सफलता की दर बहुत ऊंची है और यही कारण है कि दुनिया भर में मस्तिष्क की सर्जरी के लिए इस सुरक्षित तरीके को अपनाया जा रहा है।


उचित आराम एवं प्राणायाम से व्यक्ति जा सकता है बुढापे से युवावस्था की ओर
नई दिल्ली। हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष और आईएमए के निर्वाचित उपाध्यक्ष डॉ. के के अग्रवाल ने कहा कि ऐसा संभव है कि हमारी उम्र बढने पर भी हमारी सोच जवां रह सकती है। इसकी संभावना अधिक है।
डॉ. अग्रवाल ने कहा कि मानव का शरीर सिर्फ एक ढांचा नहीं है, बल्कि इसमें एक मानसिक स्तर, आध्यात्मिक और आत्मा होती है। उम्र बढने के साथ-साथ सिर्फ मानुष्य का शरीर बूढा होता है, लेकिन उसके शरीर के अन्य हिस्से उम्र के साथ परिपक्व होते जाते हैं। एक व्यक्ति उम्र के बढने के साथ ही अधिक विनम्र होता जाता है। मनुष्य के शरीर का अंत बुढापे के तौर पर नहीं, बल्कि युवा होने के तौर पर होता है। उन्होंने आगे कहा कि व्यक्ति की जैविक और आध्यात्मिक उम्र देखनी चाहिए न कि उसकी शारीरिक उम्र। वर्तमान समय के मुताबिक हो सकता है कि आप 70 साल की उम्र के हों, लेकिन जैविक रूप से हो सकता है कि आपकी आयु 60 साल की ही हो। डा. अग्रवाल ने कहा कि चिकित्सा विज्ञान में आज अधिकतर दवाएं जैविक उम्र के हिसाब से ही दी जाती हैं, न कि काल के उम्र के अनुरूप।
हमारे वेदों में भी यही सीख दी गई है कि हम कैसे युवा रह सकते हैं। आज के युग की महामारी आइरन, कैल्शियम और विटामिन डी की कमी है जिनका संबध ऑस्टियोपोरोसिस से है। इसके साथ ही कार्बोहाइडेट संबधी हृदय से जुडी बीमारियां समाज में नहीं घुस सकतीं बशर्ते हम परंपरागत खाने के तरीके जैसे हफ्ते में एक बार गुड-चना, माघ माह में सूर्य की पूजा और हफ्ते में एक बार ही कार्बोहाइडेट को ले। ये ऐसे रीति-रिवाज हैं जिनको भारत के हर एक नागरिक को अपनाने पर जोर दिया जाना चाहिए। डॉ. के के अग्रवाल ने कहा कि आराम, प्राणायाम और ध्यान को अपनाकर भी व्यक्ति बुढापे से युवावस्था की ओर अग्रसर होता है। दिन के समय पैरासि पैथेटिक मोड पर खडे रहकर आप अलग अनुभव कर सकते हैं।

आंखों में छुपी हैं हार्टअटैक की मिस्ट्री
नई दिल्ली। आंखों से न सिर्फ हमें खूबसूरत प्रकृति दृश्यों को ही दिखाते हैं बल्कि यह किसी का हाल-ए-दिल भी हमें बया करती हैं। आपका दिल कितना अच्छा काम कर रहा है। कब यह आपको झटका देगा, इन बातों का जवाब भी आंखें देती हैं। आपकी आंखें आपके रक्तचाप और मधुमेह की स्थिति का सही आंकलन कर आपको होने वाले हृदयघात के बारे में जानकारी देती हैं। आपका कार्डियोलॉजिस्ट यदि आपकी आंखों की पड़ताल किसी आई सर्जन की तरह करने लगें तो आप हैरान मत होइऐगा। वह आपके हाल-ए-दिल का मुआयना कर यह बताने में सक्षम होंगी कि आपको कभी हार्ट अटैक होगा या नहीं। ऑपथेलोस्कोप आंखों के भीतर झांककर, बताती हैं दिल का हाल। आईसेवन अस्पताल के निदेशक व वरिष्ठ नेत्र रोग विशेषज्ञ डॉ. संजय चौधरी कहते हैं कि हालांकि बीमारियों के बारे में जानकारियां हासिल करने के लिए आंखों में झांकने की बात कोई नई नहीं है। पहले भी चिकित्सक बीमारियों की उपस्थिति का पता लगाने के लिए आंखों के अंदर झांकते रहे हैं। उन्होंने बताया कि ऑपथेलोस्कोप उपकरण की मदद से आंखों के भीतर झांककर रक्तचाप, हृदय संबंधी गडबडियां, मधुमेह और ब्रेन स्टोक जैसी बीमारियों की उपस्थिति के बारे में पहले ही पता लगाया जा सकता है। डॉ संजय चौधरी कहते हैं कि आंख के रेटाइनल आर्टियोल्स एवं रक्त वाहिकाओं के बदलते आकार में परिवर्तन हृदय में होने वाली किसी गडबडियों की ओर इशारा करता है।एक अध्ययन से सामने आया कि आंख और हृदय का संबंध का खुलासा इंडियन हार्ट फाउंडेशन के अध्यक्ष डॉ. आरएन कालरा ने आंख और हृदय के बीच के संबंधों पर हुए शोध के हवाले से बताया कि वाशिंगटन और मिशिगन विवि के एक अध्ययन में यह साबित हुआ है कि दिल के तार आंखों से भी जुडे हैं। डॉ कालरा ने बताया कि रक्त वाहिकाएं के सिकूडन व फैलने के अलावा ऑप्टिक नर्व के बेस में होने वाली सूजन कार्डियोलॉजिस्ट को हृदय की गडबडियों के बारे में संकेत दे देता है।

हीट स्ट्रोक हो सकता है जानलेवा: डॉ. अग्रवाल

हीट स्ट्रोक हो सकता है जानलेवा: डॉ. अग्रवाल
नई दिल्ली। हार्ट केयर फांउडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. केके अग्रवाल के मुताबिक हीट स्ट्रोक का अगर समय रहते डायग्नाज और उपचार नहीं कराया गया तो यह जानलेवा हो सकता है। डॉ. अग्रवाल के मुताबिक इस समय चल रही गर्मी में तापमान 45 डिग्री सेंटीर्गेड को पार कर चुका है जिससे आने वाले दिनों में हीट स्ट्रोक के मामलों में इजाफा हो सकता है। हीट स्ट्रोक इस पर निर्भर करता है कि आप कितनी देर तक खुले आकाश में रहते है। इससे बचने के लोगों को पेय के रूप में नींबू नमक पानी और आम का पना पेय विकल्प के तौर पर लेना चाहिए।
डॉ. अग्रवाल के मुताबिक हीट स्ट्रोक के मरीजों में तेज बुखार, डीहाइड्रेशन और पसीना न निकलने जैसे लक्षण होते हैं। अक्सर ऐसी स्थिति में शरीर का तापमान 106 डिग्री फारेनहाइट से अधिक हो जाता है। व्यक्ति के शरीर का तापमान उसके निकलने वाले पसीने से नियंत्रित रहता है, जिससे गर्मी का अहसास नहीं होता है।लेकिन गर्मी के बढऩे के साथ अगर आपके शरीर से पसीना नहीं निकलता तो इससे गर्मी से जुड़ी समस्याएं होने लगती हैं जैसे कि, गर्मी से लू, तपिश और हीट स्ट्रोक की स्थिति आ जाती है। इससे प्रभावित लोगों को चाहिए कि वे 8 से 10 लीटर तरल पेय लें।
डॉ. अग्रवाल के मुताबिक वृद्व लोगों और उन व्यक्तियों में जो एंटी एलर्जी की दवाएं लेते हैं, उनमें हीट स्ट्रोक आम है। इससे बचने की सलाह देते हुए डॉ. अग्रवाल कहते हैं कि गर्मी के दिनों में हर व्यक्ति को 8 घंटे के अंदर एक बार पेशाब करना चाहिए। अगर आठ घंटे तक पेशाब नहीं होती है तो गंभीर डीहाइड्रेशन हो सकता है। इस मौसम में पीलिया, टायफाइड, गैस्ट्रोएन्टाइटिस और हैजा जैसी बीमारियों से बचाव के लिए हर व्यक्ति को चाहिए कि वह कटे हुए फल व सब्जियों के सेवन से परहेज करे।


गर्मी ने बढ़ा दी आखों की परेशानी, बरते सावधानी

नई दिल्ली। राजधानी सहित पूरे उत्तर भारत में गर्मी का प्रकोप जारी है। गर्मी का मौसम शुरू होते ही हर रोज बढ़ती तीखी धूप आँखों के लिए परेशानी बन रही है। जिससे लोगों को नेत्र संक्रमण और एलर्जी का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में धूल एवं धुएँ से पटे शहरों में आँखों को बचाने के लिए एका-एक डांक्टरों के पास लोगों की संख्या में इजाफा होने लगा है।
नेत्र रोग विशेषज्ञ और आई सेवन अस्पताल के निदेशक डॉ. संजय चौधरी बताते है कि हमारी आंखों और त्वचा के लिए सूरज से निकलने वाली पराबैंगनी विकिरण के दो प्रकार यूवीए और यूवीबी सबसे अधिक हानिकारक होती है। इनके कारण आंखों में एलर्जी होने की संभवना बढ़ जाती है।
डॉ. चौधरी ने बताया कि गर्मियों में आंखों की समस्या में आमतौर पर हवा और वायु प्रदूषण के कारण से पलकों पर पानी आना, आंखों में सूजन आना, आंखों में जलन के साथ खुजली और आंखों में लालिमा नेत्र संक्रमण में वृद्धि गंभीर समस्या बन सकती है। ऐसे में अपनी आंखों को बचाकर रखना जरूरी है। उन्होंने बताया कि आंख में संक्रमण से बचने के लिए ठंडे पानी से लगातार आंख धोने के अलावा आंखों को छूने से बचे। बाहरी गतिविधियों के लिए धूप का चश्मा पहने, दिन भर में पानी का खूब सेवन करें जिससे आँखों में हाइड्रेटेड बना रहता हैं। इसके बावजूद अगर आँखों में कोई समस्या आती है तो विशेषज्ञ से सलाह लेकर एंटीबायोटिक आई ड्रॉप और आँखों के मलहम का प्रयोग करें।



चढ़ते पारे के बीच सुगंधित पुदीना बना रामबाण

नई दिल्ली। चढ़ते पारे और तपती गर्मी के इस मौसम में शीतल पदार्थों की मांग दिन प्रतिदिन बढ़ रही है। इन्हीं पदार्थों में सबसे अधिक मांग पुदीने की है। इसकी सबसे अच्छी खासियत यह है कि इसकी पहुंच सभी तबकों तक है। साथ ही यह सभी वर्गों की जेबों को सुहाने वाला भी है।
पुदीना के कई फायदे हैं। पुदीना विटामिन ए से भरपूर होने के साथ-साथ बहुत ही गुणकारी एवं शरीर के लिए लाभकारी है। पुदीना का स्‍वाद जितना अच्छा होता है और इसकी सुगंध मिलते ही व्‍यक्ति काफी तरोताजा महसूस करता है। इसका सेवन स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभकारी होता है। यह पेट के विकारों में काफी फायदेमंद होता है।
अगर इसका सेवन नियमित रूप से किया जाए तो लू लगने की आशंका खत्म हो जाती है। साथ ही पूदीने की चटनी , शिकंजी, रायता, कुल्फी,छाछ,ठंडाई आदी पदार्थ भी इस झुलसाने वाले मौसम में शीतलता प्रदान कर रहे हैं। कहने को तो बाज़ार में विभिन्न प्रकार की कोल्ड ड्रिंक्स, जूस आदी उपलब्ध है। लेकिन पूदीने की गुणवत्ता को छू पाने में भी ये पदार्थ असफल है। यहां तक की पूदीने की तुलना इन पदार्थों से करना भी बेमानी होगा।


तपतपाती गर्मी से बचना है तो पियें नारियल पानी

नई दिल्‍ली,। इस चिलचिलाती धूप के प्रकोप से बचने के लिए हम न जाने क्या-क्या करते रहते हैं। फिर भी, ये गर्मी है कि पीछा ही नहीं छोड़ती।      
अगर आप इस तपतपाती गर्मी में भी शरीर को चुस्‍त और कूल बनाए रखना चाहते हैं, तो नारियल पानी आपके लिए बेहद फायदेमंद साबित होगा। गर्मियों में नारियल पानी का सेवन स्‍वास्‍थ्‍य के लिए कई तरह से फायदेमंद होता है।
नारियल पानी का सबसे बड़ा लाभ यह है कि यह गर्मियों में चलने वाली गर्म हवाओं से आपको सुरक्षित रखता है। इस पानी को पीकर बाहर निकलने से लू लगने की आशंका बेहद कम हो जाती है। यह शरीर ठंडा रखने के साथ ही तापमान को भी ठीक बनाए रखता है।
नारियल पानी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह शरीर को ठंडा करता है। साथ ही शरीर के तापमान को ठीक बनाए रखता है।
विशेषज्ञों का कहना है कि नारियल पानी इनर्जी का बेहतर स्रोत है। जो लोग अधिक व्यायाम करते हैं उन्हें व्यायाम के बाद नारियल पानी का सेवन जरूर करना चाहिए। खासकर व्यायाम के बाद तो इसे जरुर पीना चाहिए।
एक बात जो हमें जरूर जान लेनी चाहिए कि नारियल पानी में कैल्शियम, मैग्नीशियम और पोटेशियम काफी होता है, जो खून का संचार संतुलित रखता है। यह एक इलेक्ट्रोलाइट ड्रिंक है, जो बॉडी को तरोजाता रखता है। अगर पाचन सही नहीं है, तो नारियल पानी पीना बेहद फायदेमंद होता है। इसमें एंटी वायरल और एंटी बैक्टीरियल खूबियां भी होती हैं।



बढ़ते पारे ने दिल्लीवालों का मूड बदला

नई दिल्ली। 26 साल के संजीव इन दिनों अजीब समस्या से गुजर रहे हैं। उनका न तो किसी काम में मन लगता है और न ही एकाग्रता बन पाती है। मूड ऐसा कि बात-बात पर किसी से भी लड़ाई झगड़ा करने को तैयार। हालत यह होती है कि डिप्रेशन की वजह से खुद के ही बाल नोचने का मन करता है। दरअसल बढ़ते पारे ने दिल्ली वालों का मूड भी गरम कर दिया है।
मनोवैज्ञानिक इसे मेडिकल टर्म में गर्मी में मूड स्विंग की समस्या बताते हैं। उनका कहना है कि बाहरी वातावरण का सीधा संबंध हमारे मूड से भी होता है। ज्यादा तापमान और आर्द्रता वाले मौसम में कुछ लोगों का मूड तेजी से बदलता है। कभी-कभी यह मनोवैज्ञनिक समस्या बन जाती है और कई अजीबोगरीब लक्षण दिखने लगते हैं। ऐसी समस्याएं लेकर आने वाले मरीजों की संख्या इन दिनों तेजी से बढ़ रही है। जानकार कहते हैं कि यह साफ तौर पर देखा गया है कि सुहाने मौसम की तुलना में गर्मी और उमस वाले मौसम में हमारी भावनाओं और मूड में तेजी से बदलाव होता है। मनोवैज्ञानिक डॉ. समीर कलानी का कहना है कि मौसम का सभी के मूड से एक सीधा संबंध होता है। ज्यादा तापमान में दिमाग में मौजूद हारमोन्स में तेजी से बदलाव होता है। कभी कभी हारमोनल संतुलन बिगड़ जाता है। इससे मानसिक संतुलन पर भी असर पड़ता है। इससे पीड़ित का मनोविज्ञान अजीब व्यवहार करती है। मेडिकल की भाषा में इसे मूड स्विंग कहते हैं।
क्या हैं मुख्य समस्याएं?
इंडियन हार्ट फाउंडेशन के अध्यक्ष डॉ आरएन कालरा कहते हैं कि एकाग्रता नहीं, मूड में भारीपन, डिप्रेशन, आलस -मामूली बात पर भड़क जाना, लड़ाई-झगड़ा भी-दिन भर या रात में भी बेचैनी महसूस करना-थोड़ी देर पहले ही की गई प्लानिंग भूल जाना जैसे आम लक्षण दिखते हैं।
रिलेक्सेशन थैरेपी जरूरी
डॉ कालरा कहते हैं कि यह समस्या उनमें ज्यादा होती है जिसके परिवार का इतिहास अफैमिली हिस्ट्री ऐसी रही हो। वे तापमान के प्रति सेंसिटिव होते हैं। गर्मी में यह समस्या बढ़ जाती है। इसके लिए मेडिसिन थैरेपी,   रिलेक्शेसन थैरेपी और साइकोलॉजिकल थैरेपी जरूरी होती है। हालांकि मेडिसिन अंतिम विकल्प होता है, जब समस्या ज्यादा बढ़ जाती है। फिर भी जानकार कहते हैं कि सुहाने मौसम में मूड लाइट होता है। हालांकि कुछ ऐसे लोग भी हैं जो ज्यादा सर्दी में डिप्रेशन में आ जाते हैं। लेकिन सर्दी में ऐसी परेशानी भारतीय लोगों में कम होती है।



 मौसम एवं जीवन शैली में बदलाव के चलते हर 6 में से 1 दंपत्ति बांझपन की शिकार

नई दिल्ली, । बदलते मौसम एवं जीवन शैली का असर बांझपन पर पड़ा है। महिलाएं जहां पोली-सिस्टिक ओवरियन सिंड्रोम यानी पीसीओएस से पीड़ित हो रही हैं वहीं पुरुषों में शुक्राणुओं की संख्या लगातार गिरती जा रही है।
फोर्टिस-ला फेम अस्पताल के फर्टीलीटी विशेषज्ञ डॉ. ऋशिकेष पाई कहते हैं कि बढ़ती बांझपन की समस्या से प्रकृति का संतुलन खतरे में आ गया है। हर 6 में से एक दंपत्ति बांझपन की समस्या से जूझ रहा है और इन मामलों में 30-40 प्रतिशत बांझपन के मामले महिलाओं से जुड़े हुए होते हैं और 30 से 40 प्रतिशत पुरुषों से संबंधित होते है। कुछ मामलों में महिलाओं और पुरुषों दोनों ही मिलकर कुछ विशेष प्रकार से बांझपन का कारण बनते हैं। ऐसे में गहन जांच और मौजूद बेहतरीन ईलाज के चलते 50 प्रतिशत बांझ युगलों में गर्भधारण करना संभव है। इसके लिए मौजूद विभिन्न तकनीकि सहायता ली जाती हैं।
गंगाराम अस्पताल की आईवीएफ एवं फर्टीलीटी विशेषज्ञ डॉ. आभा मजूमदार कहती हैं कि महिलाएं पोली-सिस्टिक ओवरियन सिंड्रोम यानी पीसीओएस से पीड़ित हो रही हैं। यह एक विशेष तरह की समस्या है जिसमें महिलाओं में हार्मोन का संतुलन बिगड़ जाता है और और उनकी माहवारी में समस्याएं शुरू हो जाती हैं जिससे उन्हें बच्चा पैदा करने में मुश्किल पैदा हो जाती है। उन्होंने पीसीओएस को लेकर अपनी चिंता को जागृत करते हुए जानकारी दी कि यह समस्या भारतीय महिलाओं में सबसे आम तौर पर विद्यमान है।
डॉ मजूमदार कहती हैं कि आज देश में हर 15 में से 1 महिला इस समस्या से जूझ रही है। इस समसया के लक्ष्ण युवा अवस्था में शुरू होते हैं और सही ईलाज से इन लक्षणों को नियंत्रित किया जा सकता है और इसके बड़ी समस्या बनने से बचा जा सकता है।
क्या हैं पीसीओएस के लक्षण?
पीसीओएस के लक्षणों को समझाते हुए डॉ. नंदिता पी पालशेटकर ने कहा  कि महिलाओं जिनको लगतार माहवारी की समस्या रहती है, माहवारी नहीं होती या फिर असमान्य रक्तस्राव होता है उनमें पीसीओएस की समस्या होने की अधिक आशंका रहती है। ऐसे में चेहरे, छाती, पेट, पीठ, अंगूठे पर अधिक बाल आना और कील मुहांसे, तैलीय त्वचा और डैंड्रफ पीसीओएस से जुड़े हुए कुछ प्रमुख लक्षण हैं।



दिल्ली में वॉटर किलर का कहर, ओपीडी में 40 फीसदी मामले गंदे पानी से होने वाली बीमारी के

नई दिल्ली, । दिल्ली में गंदा पानी बीमारियों की बड़ी वजह के रूप में सामने आया है। अस्पतालों की ओपीडी में आने वाले करीब 40 फीसदी मामले गंदे पानी से होने वाली बीमारियों के हैं। पिछले कुछ सालों में ये मामले तेजी से बढ़े हैं। इससे साफ है कि दिल्ली वालों को पीने का साफ पानी नहीं मिल रहा। एक तरफ, जल बोर्ड का कहना है कि पानी की शुद्धता तय मानक के अनुरूप है, लेकिन घर में पानी की जांच कराओ तो कभी पानी शुद्ध नहीं मिलता।
पानी में हैं मौजूद कई हानिकारक रसायन
पानी पर दिल्ली में हुई कई अध्ययन बता चुकी हैं कि पानी में हानिकारक धातु हैं। अलग-अलग इलाकों में पानी में क्लोराइड, आर्सेनिक, कैडेमियम, एल्यूमिनियम, निकिल, बेरियम जैसे तत्व मिले हैं। इससे हैपेटाइटिस, गैस्ट्रो, टायफाइड, दिल के रोग, त्वचा रोग, कैंसर, दांतों की बीमारी और त्वचा रोग बढ़ रहे हैं। लंबे समय तक इस्तेमाल करने से अंगों की विफलता तक का डर बना रहता है। डॉक्टरों का कहना है कि ओपीडी में आने वाले करीब 40 फीसदी मामले प्रदूषित पानी से होने वाली बीमारियों के हैं। गर्मियों में समस्या और बढ़ जाती है।
दूषित पानी पीने से अंगों की विफलता के अलावा कैंसर तक के खतरे
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के इंटरनल मेसिसिन के डॉ रनदीप गुलेरिया के अनुसार हर साल जल जनित बीमारियों के मामले बढ़ते जा रहे हैं। गर्मियों में हैपेटाइटिस, गैस्ट्रो, कॉलरा, जॉंडिस के मामले ज्यादा आते हैं। वहीं मेटाबोलिक डिजीज विशेषज्ञ डॉ. अनूप मिश्रा का कहना है कि लंबे समय तक ऐसा पानी पीने से ऑर्गन फेलियर या कैंसर तक की समस्या हो सकती है। गुर्दे की सास्या भी देखी गई है।
दूषित पानी से नहाने से भी खतरा
पीने से ही नहीं, दूषित पानी के नहाने में इस्तेमाल करने से भी त्वचा संबंधी रोग हो सकते हैं। विकारस्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. दिनेश कंसल का कहना है कि गर्भधारण के दौरान प्रदूषित पानी पीने से बच्चे में कई तरह की विकृतियां हो सकती हैं।


दर्दनिवारक दवाएं दे सकती है दिल का दर्द

नई दिल्ली, । दर्द से राहत दिलाने वाली पेनकिलर आपके दिल को गहरा दर्द दे सकती हैं। वैज्ञानिक अध्ययनों के मुताबिक दर्द निवारक दवाइयों का सेवन करने वालों में 30 प्रतिशत लोग हृदयाघात से पीड़ित होते हैं। ऐसे में पहली बार दिल के दौरा पड़ने के एक साल के भीतर दूसरी बार दिल के दौरे पड़ने पर मौत होने का भी खतरा होता है।
अक्सर चिकित्सक पहली बार दिल के दौरे से उभर चुके लोगों को दर्द निवारक दवाइयां सेवन करने की सलाह देते हैं। जबकि एक ताजा अध्ययन में पाया गया है कि ऐसी दवाइयों के सेवन से उनमें दिल का दूसरा दौरा पड़ने और जल्दी मृत्यु होने की संभावना बढ जाती है।
कालरा अस्पताल के निदेशक और हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ. आर.एन. कालरा बताते हैं कि कई दर्द निवारक दवाइयों के लंबे समय तक इस्तेमाल करने से लीवर और किडनी के खराब होने का खतरा रहता है। साथ ही दिल के दौरे पड़ने तथा ह्रदय संबंधित अन्य समस्याएं भी इंसान हो घेर लेती हैं क्योंकि यह दवाइयां रक्त का थक्का बनाकर दिल के दौरे या स्ट्रोक के खतरे को बढ़ाती है।
इतना ही नहीं डॉ. कालरा ने ब्रिटिश मेडिकल जर्नल की रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि इन दवाओं के सेवन से दिल की धड़कन के अनियमित होने का खतरा 40 प्रतिशत तक बढ़ जाता है। ऐसे में कोई भी दर्दनिवारक दवा बिना डॉक्टर की सलाह के न ले।


सिलिएक से निपटने में जागरुकता निभाएगी अहम कदम

नई दिल्ली। अगर आपको लगातार डायारिया की शिकायत हो रही है और आपको लग रहा है  आपके शरीर का विकास पूर्ण रुप से नही हो पा रहा है साथ ही हडड़्डियों में कमजोरी की शिकायत है तो आपको अब सावधान होने की जरुरत है । क्योंकि इसी तरह के लक्षण गेहू या गेंहू युक्त प्रदार्थ का सेवन करने से होने वाले सीलिएक नामक रोग के है।
सिलीएक यानि वह रोग जो अनुवांशिक रोग मनुष्य़ को जन्म से ही होता है। यह एक विचित्र तरह का रोग है जिसे विशेषज्ञो अपनी भाषा में एक एलर्जी का नाम देते है । सीलिएक एलर्जी ग्लूटेन नामक प्रोटीन के सेवन करने से होता है। यह ग्लूटेन नामक प्रोटीन ज्यादातर गेंहू व जौं में पाया जाता है। यह रोग समान्यत: स्त्री व पुरुष दोनो को होने की संभावना होती है। साथ ही गेंहू के आलाव जिन पदार्थों में ग्लूटोन गुप्तरुप से पाया जाता है उनका सेवन भी रोगी के लिए उचित नही है । जैसे फास्टफूड, साँस, आइसक्रीम, कुल्फी, कुछ टानिक आदि में अलग –अलग मात्रा में पाया जाता है। इस रोग की जानकारी न होने के कारण भारत की कुल आबादी के एक प्रतिशत लोग इसकी चपेट में आ चुके है। अगर दिल्ली एनसीआर की बात की जाए तो इस रोग ने अभी तक डेढ़ लाख लोगों को जकड़ लिया है।
विशेषज्ञों की राय व उपाय
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस बिमारी के प्रति लोगों को जागरुक करने के लिए आज यानि 11 मई को यह दिवस मनाने की घोषणा की है।। सीलिएक नामक रोग की जानकारी देते हुए दिल्ली मेडिकल ऐसोसिएशन के सचिन डॉ.के.के कोहली ने बताया कि सीलीएक एक गंभीर बिमारी है जिसका परहेज अगर निरंतर किया जाए तो इस बिमारी से होने वाले घातक परिणामों से आसानी से बचा जा सकता है। यही नही इस बिमारी का केवल एक ही इलाज है कि रोगी को गेंहू व जौं का सेवन करने से परहेज करना होगा । सीलिएक सपोर्ट संस्था के अध्यक्ष ड़ॉ. एस. के मित्तल ने कहा कि लोगों को इस रोग से घबराने की जरुरत नही है निरंतर इसका परहेज करके इस रोग को आसानी से मात दी जा सकती है। ग्लूटोन नामक प्रर्दार्थ का सेवन कतई न करे इसके लिए भोजन के रुप में दाल चावल, फल, मक्के की रोटी, आलू इत्यदि सब्जियों व दूध काफी मात्रा में खाए जा सकते है। साथ ही ध्यान रहे कि इस रोग में थोड़ी सी मात्रा में भी ग्लूटोन युक्त पदार्थ खाना भी घातक रहता है। जिससे पेट में केंसर का भी खतरा रहता है।
सीलिएक सपोर्ट संस्था और डीएमए करेगा लोगों को जागरुक
दिल्ली मेडिकल एसोसिएशन के सीलिएक रोगियों को उत्साहवर्धन करते हुए घोषणा कि सीलीएक सपोर्ट संस्था व डीएमए के संयुक्त तत्वाधान मै देश भर के डाक्टरों व जनता को जागरुक करने का काम करेगी।


स्वास्थ्य मंत्रालय रखेगा अंग प्रात्यारोपण की जरूरत वाले मरीजों की खबर

नई दिल्ली,। देश में कितने मरीजों को अंग प्रत्यारोपण की जरूरत है और कितने मरीज कहां भर्ती है इसका पूरा ब्यौरा रखने के लिए केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रायल ने नर्ई पहल की हैं। इस पहल के अंतर्गत मंत्रालय ने  ‘नेशनल आर्गन ट्रांसप्रान्टलेशन’ नाम की एक स्वात्तय संस्था बनाने का फैसला लिया है।
नवगठित इस संस्था के चार सेन्टर देश के चार हिस्सों में बनाए जाएंगे जो आपस में जानकारी सांझा करेंगे। जिसमें उत्तर भारत के लिए दिल्ली, दक्षिण भारत के लिए चैन्नई, पूर्वी भारत के लिए कलकत्ता व पश्चिम के लिए महाराष्ट में सेन्टर खोले जाएगें।
केन्द्रीय स्वास्थ्य निदेशालय के निदेशक डॉ. जगदीश प्रसाद ने जानकारी दी कि इस संस्था के निर्माण से देशभर में अंगदान के लिए लोगों को भटकना नही पड़ेगा। एनआईसी द्वारा तैयार किए गए एक खास तरह के साफ्टवेयर की मदद से अंगदान करने वालो का पूरा विवरण सीधे केन्द्रीय स्वास्थ्य निदेशालय के पास जमा होगा। ड़ा प्रसाद के अनुसार इस संस्था के निर्माण के बाद अंगदान के प्रति लोगों में जागरुकता आएगी, जिससे ज्यादा से ज्यादा अंगदान होने का अनुमान है।



एंटी-कॉलीनर्जिक्स दवाओं से प्रयोग से प्रभावित होती है बुजुर्गों की दिनचर्या

नई दिल्ली, । आम तौर पर दी जाने वाली एंटी-कॉलीनर्जिक्स दवाएं बूढ़े लोगों में उनके रोजमर्रा के कामकाज की गति में धीमापन ला देती हैं। इससे उनके दिनभर की दिनचर्या  बिगड़ जाती है और उन्हें खासी दिक्कत होती है। हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. के.के. अग्रवाल ने बताया कि वेक फारेस्ट यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन की दो रिपोर्टों में पाया गया है कि एंटी कॉलीनर्जिक ड्रग्स यूज्ड टू ट्रेट एसिड री लक्स, पार्किंसन डिसीज और यूरीनरी इनकांटीनेंस के प्रयोग से वृद्वों में उनके सोचने की क्षमता तेजी से कम हो सकती है।
एंटी कॉलीनर्जिक दवाएं एसीटाइकोलाइन (एक रसायन होता है जो दिमाग की नर्व सेल्स के बीच का काम करता है, इनके जुड़ने से इसमें रुकावट आ जाती है) के काम को रोक देती हैं। बुढ़ापे में जो एंटी कॉलीनर्जिक्स लेते हैं वे कहीं ज्यादा धीमी गति से टहलते हैं साथ ही अन्य रोजमर्रा की जिन्दगी में मदद की जरूरत होती है। ये परिणाम उन वृद्वा अवस्था वाले  उन लोगों में भी सही पाये गए जिनकी याददाश्त और सोचने की क्षमता सामान्य थी। डा. अग्रवाल के अनुसार बुढ़ापे में जो काम चलाऊ एंटी कॉलीनर्जिक दवाएं लेते हैं, यानी दो या इससे ज्यादा हल्की एंटी कॉलीजर्निक दवा खाते हैं तो उनमें भी तीन-चार साल बाद ऐसी ही कार्यक्षमता हो जाती है
आम एंटीकॉलीनर्जिक दवाओं में रक्तचाप की दवा नाइफीडिपाइन, द स्टमक एंटैसिड रैनीटिडाइन और इनकॉन्टीनेंस मेडिकेशन टाल्टीरोडाइन शामिल हैं। कॉलीनेस्टीरेज इनहिबटर्स एक पारिवारिक दवा है जिसको डीमेंशिया के उपचार में इस्तेमाल करते हैं। इसके अलवा अन्य दवाओं जिनसे एसीटिलकोलाइन बढता में शामिल हैं- डॉनीपेजिल, गैलेंटामाइन, रीवस्टिग्माइन और टैक्राइन। करीब 10 फीसदी मरीज टॉल्टीरोडाइन और डॉजीपेजिल एक साथ ले रहे होते हैं। दोनों दवाएं फार्मा के तर्क से एक दूसरे के उल्टा है जिसकी वजह से डीमेंशिया और इनकॉन्टीनेंस के उपचार पर असर होता है इसके साथ ही इससे एक या दोनों दवाओं के असर में भी कमी आती है।


प्रोटेस्ट कैंसर का सफल इलाज

नई दिल्ली, । राजधानी के आर.जी.स्टोन अस्पताल में पिछले दिनों एक मरीज के प्रोस्टेट कैंसर का सफल इलाज किया गया। इलाज के दौरान नई और आधुनिक होलेप तकनीक का इस्तेमाल किया गया।
गौरतलब है कि कई महीने से गौरांगा सुंदर पात्रा प्रोस्टेट ग्लैंड की समस्या के कारण कई अस्पतालों में इलाज के लिए गए। सभी जगह उन्हें ओपन सर्जरी की सलाह दी गई। लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं थे। लेकिन बिना इलाज उनकी स्थिति इतनी खराब हो गई थी कि कैथेटर-फौले के माध्यम से उनके शरीर से मूत्र निकाला जाता था। परेशान हो उनके परिजन उन्हें लेकर आर.जी.स्टोन अस्पताल गए। जहां डॉक्टरों ने उन्हें तुरंत ऑपरेशन की सलाह दी। जिसके लिए उन्हें तैयार किया गया और होलेप तकनीक द्वारा उनका सफल आपॅरेशन किया।
अस्पताल के प्रबंध निदेशक डॉ. भीम सेन बंसल ने बताया कि मरीज की स्थिति बहुत ही खराब थी। उसका प्रोस्टेट 222 ग्राम का हो गया था। उनकी स्थिति को देखते हुए ऑपरेशन के लिए 100 वॉट होलेप का प्रयोग किया गया, जो कि विश्व की सबसे आधुनिक और उत्तम तकनीक है। मरीज सर्जरी के बाद पूरी तरह से स्वस्थ है। डॉ. बंसल ने बताया कि बढी हुई प्रोस्टेट ग्रंथी के इलाज के लिए होलेप को स्वर्णिम मानक माना गया है। यह अत्यंत सुरक्षित है। हृदय रोगियों के लिए तो यह बहुत ही 


मसूढों में कीडे होने पर समय से पहले डिलीवरी संभव, महिलाओं के मसूढों में जितने बैक्टेरिया उतने जल्द डिलीवरी के लक्षण

नई दिल्ली। सही तरीके से दांतों की देखभाल करके हार्ट अटैक, हार्ट ब्लॉकेज, अस्थमा और सीओपीडी जैसी खतरनाक बिमारयों से बचा जा सकता है। उन्होंने बताया कि यदि गर्भवती महिलाओं के मसूढों की समस्या का उपचार करके समय से पहले होने वाले बच्चे के जन्म पर रोक लगाई जा सकती है। हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. के के अग्रवाल ने बताया कि मसूढों में कीडे होने का सबंध कई तरह की बीमारियों से रहा है।
इसके लिए एक तय समय के मुताबिक दांतों का निरंतर उपचार करवाते रहना चाहिए। जर्नल ऑफ पीरियोडोंटोलॉजी में प्रकाशित एक अध्ययन का हवाला देते हुए डा. अग्रवाल ने कहा कि अध्ययन में दिखाया गया है कि यदि गर्भवती महिलाओं में मसूढों की समस्या का उपचार सही तरीके से किया जाये तो इससे समय से पहले जन्म लेने वाले शिशुओं पर रोक लगाई जा सकती है।
अध्ययन में दिखाया गया है कि जिन गर्भवती महिलाओं ने दांतों की बीमारी का उपचार करवाया उनमें समय से पहले शिशु जनने के मामले सामने नहीं आए। जबकि जिन महिलाओं ने इसका इलाज नहीं करवाया उनमें समय से पहले शिशु को जन्म देने का खतरा करीब 90 गुना पाया गया। डा. अग्रवाल ने बताया कि एक अन्य टीम के अध्ययन में पाया गया कि जिन महिलाओं की मसूढों में गर्भ या इसके बाद जितने ज्यादा बैक्टीरिया पाये गए, उनमें उतना ही ज्यादा समय से पहले बच्चे को जन्म देने का खतरा पाया गया।



थैलासीमिया के सबसे ज्यादा मामले डीडीयू अस्पताल में, जानकारी के अभाव में फैल रहा रोग

नई दिल्ली। राजधानी के सरकारी अस्पतालों में थैलासीमिया के सर्वाधिक मरीज दीनदयाल उपाध्याय (डीडीयू) अस्पताल में आ रहे हैं। जिन मरीजों में थैलासीमिया की पुष्टि हो रही है उनमें सबसे अधिक संख्या गर्भवती महिलाओं की है। दिल्ली सरकार के तीन अस्पतालों में अभी थैलासीमिया जांच की सुविधा उपलब्ध है। इनमें जीटीबी अस्पताल, डीडीयू व एलएनजेपी अस्पताल शामिल हैं। पिछले वर्ष एलएनजीपी में 35 व जीटीबी में 133 मामले थैलासीमिया के सामने आए, वहीं डीडीयू में थैलासीमिया के पिछले वर्ष 217 मामले आए।
थैलासीमिया विभाग के डॉ. दिनकर बताते हैं कि डीडीयू में थैलासीमिया के कुल मामलों में 17 फीसद संख्या गर्भवती महिलाओं की है। सुकून की बात यह है कि पिछले वर्ष के आंकड़ों के आधार पर ज्यादातर मरीज मेजर श्रेणी के सामने नहीं आ रहे हैं। फिलहाल, डीडीयू में 224 मरीज मेजर श्रेणी के पंजीकृत हैं। इन मरीजों को हर 21 वें दिन पर अस्पताल में खून चढ़ाया जाता है।
इस बीमारी के तेजी से फैलते प्रभाव के बारे डॉक्टर ने बताया कि यह जीन की गड़बड़ी से होने वाली बीमारी है। इसमें मरीज के रक्त में हीमोग्लोबिन की मात्रा काफी कम हो जाती है। इससे प्रभावित व्यक्ति में स्वच्छ रक्त कणिकाओं का निर्माण पर्याप्त मात्रा में नहीं हो पाता। इससे प्रभावित व्यक्ति को जीवनपर्यत बाहरी रक्त की जरूरत होती है। करीब 17 फीसद भारतीय इस बीमारी से पीड़ित हैं। डॉ. दिनकर बताते हैं कि अफगानिस्तान व पाकिस्तान से आए लोगों में इस बीमारी के लक्षण अधिक पाए जाते हैं। भारत में यह बीमारी पंजाब व हरियाणा जैसे प्रदेशों में अधिक पाई जाती है। इस बीमारी का पूर्ण उपचार अस्थि मज्जा का प्रत्यारोपण है, लेकिन यह विधि काफी महंगी है।
थैलासीमिया से बचाव के बारे डॉ. दिनकर का कहना है कि जीन की गड़बड़ी से होने वाली बीमारी के संबंध में लोगों में जितनी जागरूकता होनी चाहिए, उसका अभाव है। थैलासीमिया से ग्रस्त युवक की शादी इस बीमारी से पीड़ित युवती से हो जाए तो बच्चे में शत प्रतिशत इस बीमारी से ग्रस्त होने की संभावना रहती है। ऐसे में प्रभावित युवक के लिए शादी से पूर्व डॉक्टरी सलाह जरूरी है।

Sunday, April 7, 2013

INDIA MUST LOOK NORTH-EAST



Monday, 01 April 2013 | KG Suresh | 
The reason why the legendary freedom-fighter from Meghalaya, U Kiang Nanbah, is an unknown figure for the rest of the country is that we are so poorly informed about the history and culture of the Seven Sisters
At the first instance, the name struck as perhaps one of some South East Asian political leader. It was later one realised that he was one of the greatest freedom-fighters this country has produced. Unfortunately, not only in the rest of the country but even in his own native Meghalaya, U Kiang Nanbah is not a well-known figure, thanks to a policy of sheer indifference successive Central Governments have adopted towards the history and culture of the people of the North-East,
Remembering Nanbah now assumes all the more significance as 2013 marks 150 years of his execution at the hands of the British rulers. Not much is known about his early days except that he was a child when the British annexed the Jaintia kingdom in 1835. He had no royal lineage whatsoever and was born in an ordinary peasant family, but what ignited the spirit of patriotism in the young Nanbah was the high-handedness of the alien rulers and the daredevil exploits of his maternal uncle U Ksan Sajar Nangbah, who fought against the invaders at a place called Chanmyrsiang.
Like in other places, the British initially adopted a policy of least interference in the internal affairs of the newly annexed kingdom, but gradually started imposing taxes and restrictions on the religious beliefs and cultural practices of the locals, which was resisted by Nanbah and his many compatriots.
The movement against the aliens intensified after they set up a police station at Jwai in 1855 to establish “Government authority” over the hills. The establishment of the military outpost near the cremation grounds of the Dkar clan and  orders restricting the burning of the dead was seen as interference in religious beliefs and fuelled popular resistance against the British.
The establishment of a missionary school, the destruction of weapons ahead of a traditional ceremony and attempts by British-supported missionaries to slam the beliefs of the locals as superstitions added fuel to fire. U Kiang emerged as the leader of the resistance movement and led the attacks on the Jwai Police Station, which was totally destroyed. Subsequently, the group burnt down the Christian settlement and besieged the military post. The resistance was so fierce that the British had to rush in reinforcements and launch full-scale military operations against U Kiang and his men. Unfortunately, U Kiang fell ill and was finally nabbed after stiff resistance, with the help of informers.
This revolutionary leader was put on mock trial and was sentenced to death within three days of his capture, before the very eyes of the locals, to send across a tough message that any resistance to the British rule would not be tolerated and would be suppressed with an iron hand.
However, as he was being taken to the gallows on the evening of December 30, 1862, U Kiang said something prophetic, “Brothers and sisters, please look carefully on my face when I die on the gallows. If my face turns towards the east, my country will be free from foreign yoke in the next 100 years and if it turns west, it will remain in bondage for good.”
In less than a century, India became independent. Like the native American Indians, U Kiang fought for the rights of the people in the face of imposition of an alien way of life and values. People of Khasi and Jaintia Hills have since lost much of their traditional culture. In fact, not many in the younger generation even remember U Kiang Nanbah.
The ignorance about U Kiang Nanbah is a reflection on the Government’s education policy, which has totally neglected the history of the North-East. Forget Nanbah, most history textbooks prescribed by the Central Board of Secondary Education do not have any reference to the history, culture or traditions of the region. It seems as if their history begins with the British annexation of their territories. A serious attempt was made in this direction under the leadership of the then National Council of Educational Research and Training Director, JS Rajput, during the NDA regime, but hundreds of textbooks prepared during the time were later thrown into the dustbin under the garb of preventing ‘saffronisation’ of education.
Even 65 years after independence, people from the North-East continue to be clubbed together and singled out, and that too for their racial features. Often, they are mistaken as Chinese, Nepalese or from South East Asia, and referred to even by the educated as ‘Chinkies’ because of their Mongoloid features. Forced to migrate from their idyllic but underdeveloped States for education and job opportunities, these people, mostly women and youngsters, are not only discriminated against but also have often been victims of eve teasing, molestation and rape. What’s more, they also find themselves at the receiving end of the utterly insensitive law enforcement agencies. This has led to a sense of alienation among these people, many of whom have become susceptible and vulnerable to propaganda by the separatists.
While sociologists, politicians and commentators have been attributing it to factors including the insensitivity and conservatism of the North to the lack of infrastructure and employment opportunities as also massive corruption in the North-East, resulting in migration, the fact remains that the wide communication gap between the peoples of the region and the rest of India, as well as ignorance about each other, have significantly contributed to this crisis.
Not that have there not been efforts to build bridges of understanding between the North-East and the other parts of the country, but the few attempts that have been made are few and far between. Few Gandhians, some Hindi activists, initiatives such as Ekal Vidyalaya, Vanvasi Kalyan Ashram, Ramakrishna Mission, cultural centres of the Union Government and even State-controlled media, have been contributing their bit in this direction.
There have been some citizen-driven initiatives such as My Home India, run by Mumbai-based social activist Sunil Deodhar, which seeks to bridge the chasm by helping students and others from North Eastern region in metropolises such as Mumbai and Delhi, in their hour of need. “We not only strive to help the people from the North-East but also sensitise locals about the beautiful region”, says Deodhar.
Nevertheless, this sensitisation has to begin from the school level itself, and that can be made possible only by incorporating the history, culture and traditions of the North-East in social studies textbooks taught across the country. There cannot be a greater and better opportunity to reach out to the people of the North-East than by observing the 150th anniversary of U Kiang Nanbah’s martyrdom. This can be done with the active involvement of the people of the region and by educating the rest of the country about the contributions made by the freedom-fighters, intellectuals, artists and sportspersons from the North-East towards the building of a modern India.
(The writer is a senior journalist based in Delhi)
http://www.dailypioneer.com/columnists/oped/india-must-look-north-east.html

Wednesday, March 6, 2013

यकीन नहीं होता श्रीकांत जी जोशी नहीं हैं


निहाल सिंह ।
मैं आज उस विषय पर लिख रहा हूं जिसके स्तर तक पहुंचने के लिए शायद मेरा पूरा जीवन लग जाये। फिर भी साहस कर रहा हूं लेकिन मेरे हाथ नहीं चल पा रहे हैं। मनः स्थिति यह है कि आखिर उस चरित्र को कहां से, किन शब्दों में और कैसे बयां करुं। लगभग छः माह पहले उन्होंने मुझे हिन्दुस्थान समाचार के माध्यम से अपने साथ काम करने का एक अवसर प्रदान किया। मेरे लिए यह पल सचमुच अविस्मरणीय व मुझे गौरवान्वित महसूस करवाने वाला था। यहां से मेरे जीवन में एक और नये पड़ाव की शुरुआत हुई और मैं इसमें आगे बड़ता चला गया। इस बीच बहुत कुछ घटा जिसे मैं आगे आप के साथ बाटूंगा लेकिन एक दिन अचानक तड़के-तड़के जब मेरी नींद पूरी तरह से खुली भी नहीं थी, एक खबर ने मुझे झकझोर कर रख दिया। मुझे यकीन नही हो पा रहा था कि मा. श्रीकांत जोशी जी हमें छोड़ कर जा चुके हैं।

मुझे याद है वह मंगलवार का दिन था। ठीक एक दिन पहले मैं अपने एक बेहद करीबी व वरिष्ठ व्यक्ति से मिलने दिल्ली स्थित पटेल नगर गया था। रात्रि में हुई हम दोनों की चर्चा में उस महान आत्मा का भी जिक्र आया। मुझे उस पल कतई  भी इस बात का एहसास नहीं था कि कल कुछ अनहोनी होने वाली है। सब कुछ ठीक चल रहा था। रात्रि विश्राम के लिए मैं अपने कमरे में गया, बत्ती बुझाई और सो गया। तड़के मेरी नींद पूरी भी नही हुई थी कि मेरे मित्र संतलाल जी ने मुझे जगझोर का जगय़ा और कहा कि तुम्हारे लिए एक बुरी खब़र है। मुझे लगा बुरी खबर मैं दिमाग की नशे दौड़ाई भी नही थी कि उन्होनें कहा कि तुम जिनके बारे में रात को बात कर रहे थे उनका निधन हो गय़ा है। मुझे यकीन नही हुआ फिर मैं सुनील देवधर जी के कमरे में गया तो वो श्री राम जोशी जी से बात कर रहे थे। जिसमें श्री राम जोशी की रोने की आवाज फोन से आ रही थी फिर मुझे लगा अब सच में ही श्रीकांत जी नही रहे ।
     
श्रीकांत जी ने लगभग छह माह पहले हिन्दुस्थान समाचार में काम करने का मौका दिया। पर मुझे दुख भी हो रहा कि मै ये शब्द ऐसे महायोद्वा के बैकुण्ठ जाने के बाद लिख रहा हू। जो भी हो मुझे गर्व भी हो रहा है और मै अपना यह सौभाग्य समझ रहा हू कि मै ऐसी विशाल व्यक्तित्व वाली उस परम आत्मा के बारे मै लिखने जा रहा हू जो न तो कभी थकी न कभी हारी। जितना भी जीवन जीया तो उस दो राष्ट्र के लिए जीया।  मै यह सोच रहा हू कि सच मै कितना गर्व महशूश होता होगा न उस आत्मा को जन्म देनी वाली मां को जिसका बेटा जीवन की आखिरी स्वास तक राष्टसेवा के लिए समर्पित कर देता है। वो मां भी घन्य है जिसने श्रीकांत जी जोशी को जन्म दिया। मै श्रीकांत जी जोशी  के बारे ज्यादा नही जानता क्योंकि मेरा परिचय उनसे लगभग 6 माह पहले ही हुआ। लेकिन जितना भी पिछले एक माह मै उनके बारे मै सुना उसे जानकर मुझे यह लगता है कि अगर उनके जीवन का एक प्रतिशत हिस्सा भी अगर अपने जीवन मै उतार लिया तो राष्ट्र के लिए वो भी बहुत बड़ा योगदान होगा। मुझे अच्छी तरह याद है जब उनसे मै केशवकुंज मै मिला। लगभग सात  माह पहले  मैं और तरुण केशवकुंज उनसे मिलने पहुचे तब उन्होने मुझसे पूछा की तुम क्या करते हो मैनें हल्की आवाज मैं कहा कि मै पूर्वोत्तर राज्यों के लिए काम करता हू । पूर्वोत्तर राज्यों का नाम सुनते ही श्रीकांत जी ने मुसकुराते हुए पूछा पूर्वोत्तर राज्यों के लिए क्या काम करते हो तो जो भी अनुभव और जो काम मैने पिछले एक दो साल मै किए वो सारे बता दिए । श्रीकांत जी पूर्वोत्तर राज्यों के लिए काम करने की बात से खुश हुए। पर उस समय मुझे यह नही पता था कि श्रीकांत जी ने अपने जीवन के कई वर्ष पूर्वोत्तर राज्यो के उत्थान के लिए दिए। श्रीकांत जी के बारे मै सुनकर यह लगता है कि एक ऐसा व्यक्ति जो कुछ ठान ले और उसे पूरा करे बिना पीछे न हठे बड़ा कठिन काम है । उससे भी बड़ी बात यह कि जो लक्ष्य तय किया वो उसका मार्ग भी सत्य के मार्ग से निकलना चाहिए। अगर वो रास्ता सत्य के मार्ग से नही निकलता तो श्रीकांत जी उसे बिलकुल भी पंसद नही करते थे। मुझे याद है जब दिल्ली मै उनकी स्मृति सभा के दौरान भाजपा के तत्तकालीन अध्यक्ष नितिन गढकरी जी के वो वाक्य जिसमें उन्होनें कहा था कि जब हिन्दुस्थान समाचार को पुनर्जिवित करने का विषय जब आया था तो श्रीकांत जी को चैतरफा विरोध का सामना करना पड़ा था विरोध करने वालों में नितिन गढकरी जी भी शामिल थे। किंतु एक बार लक्ष्य बनाकर लक्ष्य की प्राप्ति तक काम करने वाले श्रीकांत जी विरोध को नजरअंदाज किया और हिन्दुस्थान समाचार को पुनर्जिवित करने का काम किया। मुझे उसी सभा कि अनिरुद्व जी द्वारा कही गयी वो भी बात याद आ रही है कि जिसमे अनिरुद्व जी ने कहा था कि श्रीकांत जी जोशी ने कभी भी अपने सिद्वांतो से समझौता नही किया, जब भी काम किया आत्म स्वाभिमान को जीवित रखखर काम कियाक्योंकि एक विदेश से आया व्यक्ति जो एक बड़ी राशि अनुदान करने  के लिए तैयार था पर वह अपने मुताबिक कुछ परिवर्तन करना चाहता था।पर श्रीकांत जी ने अपने सिंदातो को कायम रखते हु। उस राशि को ठुकरा दिया था। इन दोनो प्रंसगो से यह बात मन मै आ रही है कि एक पत्रकार को अगर आदर्श पत्रकारिता अगर करनी हो तो एक बार जीवन मै वह श्रीकांत जी जोशी के बारे मै जरुर जाने।  श्रीकांत जी को हमारा साथ छोड़कर जाए तीन माह होने को है। विधी का विधान है कि आज जब मैं अपने मन के शब्दो को कप्यूटर पर टाईप कर रहा हू तो ठीक आज यानि 4 दिसंबर को ही श्रीकांत जी से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उस आखिरी भेंट मै विधी ने जो करवाया वो अब ऐसा लग रहा है कि क्या श्रीकांत जी को पता चल गया था कि हमारी वो आखिरी भेंट है। क्योंकि उन्होनें तस्सली पूर्वक मुझसे पूछा कि कैसा काम कर रहे हो । कोई परेशानी तो नही है। जाते जाते श्रीकांत जी ने कुछ संपर्क मुझे नोट कराए और कह गए कि इन सब से बात करना और कहना कि मैने कहा है कि तुम्हारी हर पत्रकारिता के काम मै मदद करना।  मै शुक्रगुजार हू सुनील देवधर जी का जिन्होने मुझे श्रीकांत जी की उस पर आत्मा से मिलवाया।

 लेखक हिन्दुस्थान समाचार दिल्ली से जुड़े है।




दिल्ली में स्थानीय स्वायत्त शासन का विकास

सन् 1863 से पहले की अवधि का दिल्ली में स्वायत शासन का कोई अभिलिखित इतिहास उपलब्ध नहीं है। लेकिन 1862 में किसी एक प्रकार की नगर पालिका की स्थ...